वंदे भारत ट्रेन के एग्जीक्यूटिव कोच में झांसी स्टेशन पर एक यात्री के साथ हुई बेहद ही निंदनीय घटना
टेन न्यूज़ !! २९ जून २०२५ !! गीता बाजपेई ब्यूरो, नोएडा/झाँसी
भोपाल वंदे भारत ट्रेन के एग्जीक्यूटिव कोच में झांसी स्टेशन पर जो हुआ, वह महज़ एक यात्री से मारपीट या उसका निजी अपमान नहीं था — यह उस सड़ चुकी व्यवस्था का चेहरा था, जो सत्ता के सामने घुटनों के बल बैठ चुकी है। भाजपा विधायक राजीव सिंह पारीछा अपनी पत्नी और बेटे के साथ कोच E-2 में यात्रा कर रहे थे। उनके पास सीटें थीं—8, 50 और 51।
सीट 49, जो खिड़की के पास थी, उस पर यात्री राज प्रकाश पहले से बैठे थे। कथित तौर पर विधायक परिवार की ‘एक साथ बैठने’ की चाहत थी, जिसके लिए राज प्रकाश से सीट छोड़ने को कहा गया। उन्होंने मना कर दिया — और बस, उनका गुनाह यहीं तय हो गया।
ट्रेन झांसी स्टेशन पर रुकती है, और सात-आठ लोग सीधे कोच में चढ़ते हैं। कोई परिचय नहीं, कोई सवाल नहीं, सीधे घूंसे-लातें चलती हैं। राज प्रकाश की नाक तोड़ दी जाती है, चेहरा खून से तरबतर हो जाता है, और कोच में मौजूद सुरक्षाकर्मी ऐसे रहते हैं — मानो पहले से निर्देशित हों कि “कुछ मत करना, साहब का मामला है।”हमलावर आते हैं, अपना काम करते हैं और बेरोकटोक निकल भी जाते हैं।
जिस ट्रेन को ‘वंदे भारत’ कहकर प्रचार में भुनाया जाता है, उसी में दिनदहाड़े लोकतंत्र की यह लिंचिंग होती है — और सिस्टम खामोश है। विधायक की ओर से सफाई आती है कि यात्री ‘अनुशासनहीन’ था, ‘पैर फैलाकर बैठा था’, जिससे उनकी पत्नी को असुविधा हो रही थी, टोकने पर कहासुनी हुई।
सवाल यह नहीं कि कोई असुविधा हुई या नहीं, सवाल यह है कि क्या सत्ता की असुविधा अब सीधे हिंसा में तब्दील हो जाएगी? क्या जनप्रतिनिधि अपनी ‘नाराज़गी’ मिटाने के लिए आम नागरिकों पर ऐसे ही हाथ उठवा सकते हैं? और क्या ऐसे मामलों में सुरक्षाकर्मियों या पुलिस की भूमिका सिर्फ दर्शक भर की होकर रह गई है?
यह घटना महज़ कोई सीट बदलवाने या असुविधा का मामला नहीं, यह उस सत्ता-संस्कृति की बदबू है जिसमें विधायकी का दंभ और “तू जानता नहीं मैं कौन हूं”, लोकतंत्र के गले में फंसा घूंसा बन चुका है। यहां यह तय नहीं होता कि कौन सही है, बल्कि यह देखा जाता है कि कौन ताकतवर है — और ताकतवर वही, जिसके पीछे सत्ता की गाड़ी खड़ी है।
जब देश की सबसे आधुनिक और सुरक्षित कही जाने वाली ट्रेन में यह सब हो सकता है, तो बाकी जगहों की कल्पना ही डरावनी है। सीसीटीवी, सुरक्षाकर्मी, और हाई-प्रोफाइल यात्री — सब होने के बावजूद जब एक व्यक्ति को पीटा जाता है तो यह मात्र एक घटना नहीं, एक व्यवस्था की पोस्टमार्टम रिपोर्ट बन जाती है।
न्याय तो जैसे किसी रसूखदारों की थाली में परोसा जाने वाला व्यंजन बन गया है। जो बोलता है, उसका मुँह तोड़ा जाता है। जो सवाल करता है, उसकी हड्डी। ट्रेन में सीट न छोड़ना अथवा विधायक की नाफरमानी करना अगर सत्ता के गुस्से को आमंत्रण देने के बराबर है, तो यह लोकतंत्र नहीं, दरबारी राज है।
वंदे भारत के एग्जीक्यूटिव कोच की उस टूटी हुई नाक से जो खून बहा है, वह सिर्फ एक यात्री की बेबसी नहीं, पूरे सिस्टम की नालायक़ी का सुबूत है। अब सवाल सिर्फ यह नहीं कि विधायक को सज़ा मिले या नहीं, बल्कि यह भी है कि क्या सुरक्षाकर्मी भी यहाँ ज़िम्मेदार नहीं? क्या रेलवे प्रशासन की भूमिका की जांच नहीं होनी चाहिए? और क्या हम सब चुप रहकर यह मान लें कि अब यात्राएं भी सत्ता की इजाज़त से ही संभव होंगी?
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